बीती बाते
कभी दहेरी को निहारती
कभी अश्रु सेआँगन बुहारती
माँ न जाने क्या सोच रही
बीते वर्षों को यूं तोल रही
जैसे कल की बात हो
गुजरा जमाना साथ हो
कैसे सब कुछ बीत गया
इस बरगद की छाया मैं
मधुमास की बीती राते
सुख दुख की बीती बाते
खारे मीठे कितने लम्हे
कितने रिश्ते खारेमीठे
बच्चों की किलकारी गूंजी
बूआ ने भी दहेरी पूजी
दादी ने आरती गायी
दादा ने महफिल सजाई
कितने प्यारे थे वो सारे
अब रह गए दो बेचारे
इंतजार अब रह गया बस
कब आओगे फिर तुम सारे
चढती नहीं कड़ाई अब तो
भूल गए इमरती पारे
आ जाओ अब बच्चों प्यारे
नैना राह तक तक हारे
क्योंकर सब इसको छोड़ गए
क्या परिंदे थे जो उड़ गए।
– रंजीता दुबे, उत्तराखण्ड