विचारों का समंदर

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विचारों का समंदर

इस श्खुबसूरत सृष्ट्यि की एक रचना हूँ मैं। मेरा नाम इंदु आचार्य है और अदना सा शौक है अपने विचारों को कागज पर उतरने का। मैंने अपने लेखन में प्रकृति, जीवन के रूपों, भावनाओं को समेटने की कोशिश की है। आपको कहीं प्यारभरी सौगातें देखने को मिलेंगी तो कहीं दर्दभरी दास्ताँ। मैं अपने विचार, अपनी सोच, अपने तरीके से आपके समक्ष रख रहीं हूँ। आशा है, आपको मेरी लेखनी पसंद आयेगी।
अनजाना रिश्ता
बहुत दिनों के बाद मैं फिर अपनी मनपसंद पुस्तक विचार नियम पढने बैठी। किताब पढना शुरू ही किया था, तभी मोबाइल पर रिंग हुई, नंबर जाना पहचाना ना होने के कारण अनदेखा कर वापस पुस्तक पढने लगी। दूसरी बार फिर कॉल आया देखकर सोचा, हो सकता है किसी परिचित का हो और कॉल रिसीव किया। मेरे हैलो कहने पर, दूसरी ओर से एक बच्ची की प्यारी सी आवाज आई, स्टेशन वाली आंटी, पता नही कौन है यह सोचते हुए मैंने जवाब दिया..कहिये बेटा जी,आप कौन, मैंने पहचाना नहीं। अरे, स्टेशन वाली आंटी इतनी जल्दी भूल गई। दिमाग पर थोड़ा जोर भी डाला पर याद नही आया। बेटा, आप कहाँ से बोल रहे हो? आपका नाम क्या है? मेरे यह पूछने पर उधर से मासूमियत भरा उत्तर आया.अरे….आंटी…अपने पापा के घर से बोल रही हूं, परी नाम है मेरा। परी ….यह नाम सुनते ही विचारों में गति आ गई। कुछ समय पहले की घटना के कुछ दृश्य आँखों के आगे घूमने लगे। मैडम जी, 25 रूपए और दे देना, सामान गाड़ी में रखवा दूंगा। नईदिल्ली स्टेशन पर मुंबई जाने के लिये आई थी और कुली से भावतोल कर रही थी। मैंने कहा, ज्यादा सामान नही है, गाड़ी में मैं रख लूंगी, तुम बस प्लेटफार्म तक रखवा दो। वह फिर बोला, अरे मैडम जी, आपको बिलकुल दिक्कत नही होगी। मैंने मन ही मन सोचा, इन लोगों की फितरत ऐसी ही होती हैं। सही मेहनताना दे रही हूं फिर भी….। नजरें बार-बार घड़ी की तरफ भी थी। ट्रेन का वक्त हो चला था। ज्यादा बहसबाजी करना उचित ना समझा। मैंने कहा, ठीक है, 25 रूपये और ऊपर दे दूंगी पर सीट के नीचे बराबर रखना। हां, मैडम जी, आप चिंता मत करो। यह कहकर उसने ट्रोली सर पर रखी दोनों बैग कंधे पर लटका लिये और चलने लगा। स्टेशन पर भीड़ बहुत थी मैं उसके पीछे इस तरह चल रही थी कि कहीं नजरों से ओझल ना हो जाये। हमारी सोच अक्सर यही रहती है कि कही ऐसा ना हो कि ये सामान लेकर कही इधर उधर हो जाघ्ए। हालांकि ऐसी घटना सौ में से एकाध ही होती है पर मन हर बार यही सोचता है कि वह एक कहीं हम तो नही। खैर… हमारे कदम प्लेटफार्म की ओर बढ़ रहे थे। मैडम जी, इधर से आओ। सीढियाँ छोड़कर वह पीछे लिफ्ट की तरफ लेकर गया और कहने लगा, आपको तकलीफ नही होगी इधर से। पर मुझे अच्छी तरह समझ आ रहा था कि इसको फायदा है, खुद लिफ्ट से जाना चाहता है, इसलिये मेरी तकलीफ मुझे समझा रहा है। खैर…मैं चुप रही। लिफ्ट नीचे आ रही थी, वह फिर बोला, मैडम जी, मेरी एक ही बेटी है, अगले महीने जन्मदिन है उसका। पिछले साल ही स्कूल में डाला है अंग्रेजी मिडियम में। बहुत अच्छा पढ़ती है, सब फटाफट याद कर लेती है। अब नई क्लास में जायेगी। स्कूल खुलने वाले है। फीस का इंतजाम कर रहा हूं। लिफ्ट खुल गई थी, बकायदा उसने मुझसे पहले अंदर जाने को कहा, बाद में खुद आया। वह फिर बोला, यहाँ से आपको कोई तकलीफ नही होगी, सीढ़ीयाँ नही चढनी पड़ेगी और भीड़ भी नही मिलेगी। लिफ्ट खुलने पर हम बाहर निकले। उसकी बक-बक अभी भी चालू थी । आराम से आ गये ना, मैडम जी, देखो.कितनी भीड़ है इधर। मैं सोच रही थी कि कितना फालतू बोलता है यह। पर इन सब में मेरा ध्यान जरा सा भी उसकी इस विशेषता पर नहीं गया कि वह मेरा कितनी ध्यान रख रहा है। एक ईश्वरीय गुण मुझे नजर आया उसमें। हम प्लेटफार्म पर पहुंच गये थे। उसने कहा, मैडम जी, गाड़ी पंद्रह मिनट लेट है, आप यहाँ आराम से बैठिये। जहाँ मेरा कोच आने वाला था, वहीं सामने उसने मेरा सामान रख दिया और बेंच पर पैर पसारकर बैठे व्यक्ति को बोलकर जगह की और मुझे बैठा दिया। मुझे उसकी यह बात अच्छी लगी । वह अब एक जिम्मेदार इंसान लग रहा था। मैडम जी , एक बात कहूं, मैंने हां में सर हिलाया, तो वह फिर बिना रूके बोला, भगवान ने लक्ष्मी दी है मुझे, बहुत खुश हूं मैं । बहुत पढ़ाऊंगा उसको। नाम रोशन करेगी मेरा, आसमान में उड़ेगी एक दिन। ऐसा कहते वक्त वास्तव में उसकी आँखें आसमान पर टिकी थी, जैसे अपनी बेटी को पंख लगाकर उड़ते हुए देख रहा हो। कितना सुंदर लक्ष्य था उसका।
इस बार उसका बोलना मुझे अजीब नही लग रहा था। ढेर सारी खूबियाँ दिखने लगी उसमें। मैं सोच रही थी, बेटी, शिक्षा को लेकर कितनी सुलझी सोच है इसकी। अब उसकी भावना समझ गई थी मैं। विचारों की दिशा कितनी अच्छी है, ख्वाब कितने ऊँचे है। आज जहाँ इस दुनिया में, हमारे समाज में सक्षम लोगों की भी मानसिकता बेटी होने पर विकृत हो जाती है और ऐसे निर्णय ले लेते है जो क्षमा योग्य नही है, वही यह इंसान रोज कमाता है, रोज खाता है फिर भी इतने सुंदर विचार, इतनी व्यवस्थित सोच।
उसकी बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरे मस्तिष्क में विचारों की गति तीव्र थी। अपनी बेटी के लिये जो हर रोज घर से यह ख्वाब लेकर चलता हो कि ज्यादा से ज्यादा कमाऊं, ताकि उसका जन्मदिन अच्छी तरह से मना सकूं और उसके उज्जवल भविष्य की ठोस और सुंदर सी नींव रख सकूं। सच कहूं तो अब उसके अलग से मांगें हुए 25 रूपये मुझे बहुत ही कम लग रहे थे। मैं सोच रही थी इसकी बेटी के आसमान में उडने के ख्वाब को मैं भी पंख दूंगी।
मैडम जी, आप बैठिये, मैं अभी आता हूं, गाड़ी में अभी थोड़ा और वक्त है ऐसा कहकर वह गाड़ी से थोड़ी दूरी पर ही खड़े उसके साथी कुली से बात करने लगा। वक्त कम था, अब मेरे फैसला लेने की घड़ी थी। क्या करू? कैसे करू? कैसे उसके उड़ते पंखों को सहारा दिया जाय? अचानक मुझे अपने पास रखे इमरजेंसी पैसों की याद आई। सफर में बहुत आना जाना होता था मेरा, कब काम पड़ जाय इसलिये इंतजाम रखती थी। आखिर मैंने फैसला कर लिया। मैंने इशारे से उसे बुलाया, उसने आकर पूछा, क्या मैडम जी? मेरे पूछने पर कि तुम्हारी बेटी की साल भर की फीस कितनी होगी? उसने कहा, मैडम जी,12.000 रूपये है जी, जुटा रहा हूं धीरे-धीरे। अपने पास से 25,000 रूपये निकालकर मैं उसे देने लगी। उसके बहुत मना करने के बाद भी अधिकारपूर्वक मैंने उसके हाथ रख दिये। मैडम जी, आप बहुत अच्छी हो, यह कहते समय उसकी आँखें भीगी हुई थी। उसके किस गुण का आकर्षण था कि मैंने मदद करनी चाही? पर में इस बात को अच्छी तरह समझती थी कि जो होता है, ईश्वर की मर्जी से होता है, हम करने वाले कोई नहीं। ट्रेन आ चुकी थी उसने पैसे जेब में रखे और सामान लेकर कोच की तरफ बढ़ गया। मैं भी ट्रेन में चढ़ गई। सामान व्यवस्थित करने के बाद, मैंने उसका मेहनताना उसकी और बढ़ाया तो उसने सिर झुकाकर साफ इंकार कर दिया। विचारों के विशेष गुण की वजह से वह मुझे, मुझसे भी ऊँचा दिखाई दे रहा था। मैंने समझा बुझाकर उसका मेहनताना और अलग से 1000 रूपये का नोट आगे बढ़ाया और कहा, अगले महीने जन्मदिन है ना बेटी का, मेरी तरफ से एक प्यारी सी फ्रॉक ले आना उसको।
वह निरूशब्द सा खड़ा था पर उसकी आँखें बहुत कुछ कह रही थी और मैं भी उससे और उस अनदेखी ख्वाबों वाली बच्ची से एक अपनापन महसूस कर रही थी। फिर वह धीरे से बोला , मैडम जी,आपका फोन नंबर दे दीजिये। मैंने डायरी पेन निकाला और अपना मोबाइल नंबर लिखकर दे दिया और कहा कि कभी जरूरत हो तो फोन कर सकते हो। वह जाने लगा, उसने दोनों हाथ नमस्कार की मुद्रा में जोड़ दिये। मैंने मुस्कुराकर कहा,अपनी बेटी का नाम तो बताते जाओ…… परी……..ओह….। जैसे मेरी नींद टूटी हो, मोबाइल पर लगातार प्यारी सी आवाज अभी भी आ रही थी, स्टेशन वाली आंटी , कुछ बोलो ना! आप मेरी बर्थडे पर क्यूं नही आई? शिकायत भरी अपनेपन की आवाज कानों में गूंज गई। अचानक दिल प्यार से सराबोर हो उठा और आँखें आंसुओं से…..। क्या दुनिया में इस तरह प्यार से याद रखने वाले लोग हैअभी? या मेरे किसी कर्म का प्रतिफल था यह। भारी मन से मैंने उससे कहा, बेटा कुछ काम था, इसलिये नही आ पाई पर जल्दी ही तुमसे मिलने जरूर आऊंगीं। बाय स्टेशन वाली आंटी कहकर मेरे जवाब का इंतजार किये बिना ही फोन बंद कर दिया उसने। पर मेरे दिलोदिमाग के सारे तारों को हिलाकर रख दिया। जैसे कोई सपना सा था, कितने दिनों बाद अचानक….।
क्या रिश्ता था उसके साथ जो उसका हर शब्द मेरे दिल को छू गया? इतना अधिकार से, अपनेपन से बात करना। कुछ गहरा ही रिश्ता था। अपनों से भी ज्यादा, दिल के करीब। उस दिन के बाद से हर 15 दिन में एक बार उसका फोन जरूर आता है।